हिन्दी दिवस
>> बुधवार, 16 सितंबर 2009
हिन्दी दिवस बीत गया। देशभर में रस्म अदायगी भी हो गई। विभिन्न विभागों ने हिन्दी सप्ताह मना लिया। सरकारी दफ्तरों में सूचना पट्ट पर पुराने नेताओं, साहित्यकारों ये विदेशी विद्वानों के हिन्दी के बारे में वक्तव्य लिखे गए। बैंकों में लिखा 'हिन्दी में चेक स्वीकारे जाते हैं'। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में हिन्दी के लिए प्रतियोगिताएँ आयोजित की गईं। पुरस्कार वगैरह भी बँट गए। फिर...फिर जिन्दगी की धारा रोज़मर्रा की तरह बहने लगी। माताएँ गर्व से कहने लगीं, यू नो, हमारी बेटी तो हिन्दी में इतनी वीऽऽऽऽक है ना कि बस। स्कूलों में हिन्दी में बोलने पर सज़ा, नहीं पनिशमेंट मिलने लगा। जहाँ सजा नहीं होती वहाँ तीन साल का हिन्दी भाषी बच्चा जब स्कूल में उसकी टीचर से हिन्दी में कुछ बोलता है तो वे महोदया उस अलिखित नियम पालन करने में कोताही नहीं बरततीं कि हिन्दी बोलने पर ज़वाब ही नहीं देना है, आखिर झख मारकर अंग्रेजी में ही बोलेगा, जैसी भी आए।
ज़ाहिर है पूरे देश में यही सब हो रहा है, फिर भी इन सबके बीच कुछ ऐसा भी है जिससे एक उम्मीद बँधती है। मैं अपने कार्यालय की बात कर रहा हूँ। देश के मध्य में स्थित मध्यप्रदेश के मालवा प्रांत के इन्दौर शहर, जिसे मिनी मुंबई भी कहा जाने लगा है, में ये सब देखा-सुना है मैंने। पात्रों के नाम पहचान की गोपनीयता की दृष्टि से बदल दिए गए हैं।
सुबोध दासगुप्ता और नूरुद्दीन पश्चिम बंगाल के रहने वाले हैं। दोनों की मातृभाषा बांग्ला है। जब दोनों से मुलाकात होती है तो वे लोग मुझसे हिन्दी में ही बाते करते हैं। सुजय काकाती आसाम के वासी हैं। बस काम के सिलसिले में इन्दौर आना हो गया। धनंजय पात्र और अनिता साहू उड़ीसा के रहने वाले हैं। ये लोग भी मेरे सहकर्मी हैं। ये लोग भी मुझ से हिन्दी में ही बात करते हैं। इस बात पर आप लोग सोच रहे होंगे कि ये तो स्वाभाविक है क्योंकि मुझे तो इन सभी की भाषा आती नहीं है इसलिए उन्हें हिन्दी ही तो बोलना होगी। कुछ लोगों को इसमें भाषाई अल्पसंख्यकता नज़र आ जाए। या फिर हिन्दी भाषी लोगों की दादागिरी भी कह सकते हैं। पर ऐसा कुछ भी नहीं है। चूंकि बंगाली को असमिया समझ में नहीं आती है, तो उड़ियाभाषी के लिए बांग्ला एक अलग भाषा है। इसलिए ये लोग केवल मुझसे ही नहीं आपस में हिन्दी में ही चर्चा करते हैं। मैंने इन्हें कभी भी आपस में अंग्रेजी बोलते नहीं सुना। ज्ञान तो अंग्रेजी का उन्हें पर्याप्त है। वे लोग कार्यालयीन और बाहरी काम यदि अंग्रेजी में होना है तो बखूबी करते हैं, फिर चाहे वह पत्राचार हो, मीटिंग हो या फ़ोन कॉल।
यहाँ पंजाब भी है, रमणीक कौर सलूजा, गुरमीत सिंह ईशार। गुजरात भी है, जयति श्राफ, प्रज्ञा दवे। महाराष्ट्र भी है सुनंदा केलकर, उल्लास खरे, नलिनी देउसकर। कोंकण (गोवा) भी है, शालिनी जानसन। ज़रा रुकिए दक्षिण भारत भी है, केरल से सुज़ा इलियामा जोसेफ़ हैं तो कर्नाकट से जी. रामानुज हैं। हनुमप्पा तमिलनाडु से हैं तो नीलमणि रेड्डी आंध्र प्रदेश से हैं। मुझे छोड़कर अधिकांश लोग अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हैं फिर भी आज ये लोग अपने आपसी संवाद के लिए अंग्रेजी पर निर्भर नहीं हैं। उनका ही कहना है कि अंग्रेजी के बजाए वे लोग हिन्दी में बात करने में ज्यादा सहज अनुभव करते हैं। यह तर्क दिया जा सकता है कि यदि ये सब लोग अहमदाबाद में होते तो गुजराती बोलते या फिर चेन्नई में होते तो तमिल बोलते। यह सही भी हो सकता है, परन्तु शायद गुजराती या तमिल उन्हें सीखनी होती, जबकि ये लोग जब इन्दौर आए तो टूटी-फूटी, कामचलाऊ हिन्दी पहले से ही जानते थे। यहाँ रहकर तो उनकी हिन्दी में केवल निखार आया है।
आप लोग क्या सोचते हैं? क्या हिन्दी देश की संपर्क भाषा नहीं है? क्या श्रेष्ठिवर्ग और हिन्दी के तथाकथित मठाधीशों ने ही हिन्दी को अंग्रेजी की बेड़ियों में जकड़ नहीं रखा है?
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