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नागपंचमी

>> रविवार, 22 अगस्त 2010

दिनांक 14 अगस्त, शनिवार की छुट्टी थी और इसीलिए सुबह से काम धीमी गति से चल रहा था। इन्द्रदेव भी सुबह से मेहरबान थे। बारिश की ही वजह शायद अखबार वाला देर से आया, देर मतलब साढ़े आठ बजे। अब इसे तो देर ही कहेंगे। इधर अखबार आया और उधर मेरी बेटी प्रबोधिनी का सुप्रभात हुआ। पत्नीजी ने भी आव देखा न ताव, तुरंत बिटिया को हमारे हवाले किया और निर्देश (आप आदेश भी समझ सकते हैं) दिए कि आज उसे स्कूल के तैयार करके हम एक अच्छे पिता होने का सबूत दें। स्वीकार करना ही एकमात्र विकल्प था हमारे सामने, सो सौंपा गया काम पूरा किया। तो बिटिया के साथ-साथ हमें भी तैयार होने में बज गए साढ़े नौ।

अखबार उठाकर देखा, तो नागराज की तस्वीर के साथ लिखा था 'आज नाजपंचमी है'। ये तो भली करी पेपर वालों ने कि फ़ोटू देखकर त्यौहार मालूम पड़ गया, वरना सुबह से गली में ऐसा कोई माहौल ही नहीं था जिसससे लगे कि आज कोई खास दिन है। न तो किसी नाग वाले ने आवाज लगाई, 'पिलाओ नाग को दूध' और न ही कोई ढोल वाला दरवाजे पर मंगल ध्वनि करने आया। आज से छ:-सात साल पहले इन्दौर शहर में नागवाले कभी-कभी दिखाई दे जाते थे। पर अब तो वन विभाग और पुलिस का महकमा तत्पर रहता है, जैसे ही कोई नागवाला दिखा उसे पकड़कर नागवाली पिटारी जब्त कर ली जाती है और नागों को जंगल में छोड़ दिया जाता है। इसलिए बेटी को अखबार में नाग का फ़ोटो दिखाया और बताया कि आज नागपंचमी का त्यौहार है। वो बहुत खुश हुई कि शायद आज स्कूल न जाना पड़े। पर जल्दी ही उसकी खुशियों पर तुषारापात हो गया जब हमने बताया कि आज भी स्कूल तो जाना ही है। खैर अभी चार साल की उम्र में उसे नागपंचमी से कोई लेना-देना नहीं है।

बिटिया 10:45 पर स्कूल चली गई। श्रीमतीजी ने रसोई की दीवार पर गेरू से नागदेव का पारंपरिक रेखांकन कर उसी का पूजन किया। हम थोड़ा नास्टेलजिया गए थे। ऐसा अक्सर हो जाता है......फ़्लैश बैक..... '70 का दशक, धार शहर में पीपली बाजार....उम्र 8-10 साल। ईस्टमैन कलर की छवियाँ जेहन में तैर रही हैं। उस समय नागपंचमी की छुट्टी होती थी। इसलिए बच्चों के लिए त्यौहार का मज़ा दोगुना हो जाता था। बच्चे सुबह से तैयार होकर घर से बाहर मोहल्ले में निकल आते थे। हमारा घर T जंक्शन पर था। तीनों दिशाओं में 8-10 साथ की उम्र के हिसाब से लगभग 15 घरों तक हमारे भ्रमणपथ की सीमारेखा थी। तो हम भी आस-पास के समवयस्क साथियों के साथ निकल पड़ते नागपंचमी का जायजा लेने। सुबह से दसियों नागवाले आवाज़ें लगाने लगते ..... पिलाओ नाग को दोऽऽऽऽऽध...... या ...... नाग को दूध पिलाऽऽऽऽऽओ। हम बच्चों के लिए रोमांच के क्षण वे होते जब किसी के घर नागवाले को पूजा के लिए बुलाया जाता। नाग वाला घर की देहरी पर बैठ जाता और अपनी पोटली में से नाग की पिटारी निकालता। सभी बच्चों की आँखे पूरी खुलकर झपकना बंद हो जाती कि एक भी पल चूक न जाए। ओह, अब नागराज के दर्शन हुए, पिटारी में कुंडली मारे बैठे या लेटे हैं। नाग वाले जो आमतौर पर काल‍बेलिया समाज के होते थे, नाग के आराम में खलल डालकर उसे फन उठाने को मज़बूर करते। अब तक घर की महिला दूध का कटोरा और कुंकुम-अक्षत आदि पूजन सामग्री ले आती। नाग वाले कटोरे में नाग का मुँह डालकर दूध पिलाने की एक्टिंग करता और नाग से भी करवाता। हम सभी बच्चे बहुत ही ध्यान से कटोरे में दूध का स्तर जाँचते कि कितना दूध पिया, दूध तो उतना ही बना रहता। अब हम सभी बच्चे आपस में बात करके यह मान लेते कि सुबह से ही दूध पी रहा है, तो अब तक पेट भर गया होगा। अब नाग का मुँह कटोरे बाहर निकाल लिया है और उसे पूजन करने वाली काकी, बुआ, मासी, दादी, नानी, भाभी के सामने कर दिया है। (हाँ, खून का रिश्ता हो या न हो उस समय पूरे मोहल्ले में इन्हीं पारिवारिक संबोधनों का उपयोग होता था।) नाग का मुँह मुट्ठी में ऐसा पकड़ा होता कि साँस भी बुमश्किल आ-जा पाती होगी। एक और बात हम बच्चे खासतौर पर देखते थे, वह थी नागराज की लम्बाई। जिस बच्चे के घर पर 3-4 फ़ीट का नाग आ जाता वह चार दिनों तक अपनी गरदन नाग के फन के समान उठाए घूमता रहता। और जिन बच्चों के घर छोटे डेढ़ फुटिये
बड़े होने पर भी कई लोग ऐसा ही करते रहते हैं, परिवार में, पड़ौस में, नातेदारियों में, समाज में, ऑफ़िस में - खासकर नेताओं, अधिकारियों या रसूखदारों से सम्बन्ध बताने के लिए।
नाग आते वे बेचारे हीन भावना से ग्रस्त हो जाते और बड़े नाग वाला बच्चा इन्हें हेय दृष्टि से देखता। अब ये नाग की साइज़ तो पूरी तरह से गैम्बलिंग थी। जब तक पिटारी न खुले तब तक नाग की लंबाई पता ही नहीं चलती थी। कई बार तो पड़ौस में नाग देखकर बाँछें खिल जातीं। अब ये कहाँ होती हैं और कैसे खिलती हैं पता नहीं। हम दौड़कर माँ के पास जाते और आँचल पकड़कर अनुरोध करते कि पास वाली बबली के घर पर जो नाग वाला है ना, उसे हम भी बुलाएँगे। पर माँ तो घर के काम के हिसाब से पूजन करती थीं, कोई मुहूर्त नहीं होता था बस अंदाजन 12 बजे से पहले पूजन कर लेते थे। हम माँ के मना करने पर मन मसोस कर रह जाते। घर पर नागवाले के आने पर स्थिति यह होती कि हम घर के अंदर और मोहल्ले के बच्चे देहरी के बाहर से झाँकते रहते। कुछ हिम्मती और ज्यादा मित्रवत बच्चे अंदर आकर हमारे पास खड़े हो जाते और गर्व से बाहर वालों को देखते कि देखो हमारी पहुँच इस घर के अंदर तक है। कमोबेश ऐसा हर घर में होता बस अंदर और बाहर वाले बच्चे बदल जाते। बड़े होने पर भी कई लोग ऐसा ही करते रहते हैं, परिवार में, पड़ौस में, नातेदारियों में, समाज में, ऑफ़िस में - खासकर नेताओं, अधिकारियों या रसूखदारों से सम्बन्ध बताने के लिए। नागवाले के साथ कभी-कभी कोई छोटा बच्चा होता, जिसके वे पुराने कपड़ों की माँग करते। नागों की चर्चा अगले दो-चार दिनों कर स्कूल में चलती रहती। सभी बच्चे अपने-अपने ज्ञान का आदान प्रदान करते रहते मसलन - मूँछों वाला नाग, इच्छाधारी नाग, मणिधारी नाग, नागिन का बदला, मंत्र से जहर उतारना आदि-आदि।

नागपंचमी के दिन शाम को धार में लाल बाग के पास मेल लगता था। अब भी लगता है। जिसे भुजरिया का मेला कहते हैं। वहाँ कई नागवाले शाम को आकर बैठ जाते हैं और बस ऐसे ही नागों का सार्वजनिक प्रदर्शन होता है, चढ़ावे में कुछ पैसे भी मिल जाते हैं। बगीचे में मिट्टी की एक बांबी जैसी रचना की जाती है। यहाँ लोग नागदेव की पूजा करते हैं। बगीचे के आस-पास की सड़कों पर झूले, खाने-पीने की वस्तुओं और खिलौनों दुकानें होती हैं। आज भी कई बार यहाँ मिट्टी के खिलौने दिखाई दे जाते हैं। गुब्बारे, पिपहरी वाले घूमते रहते हैं और आजकल चीन में ‍बने खिलौने भी रखते हैं। निपट भारतीय कस्बे-देहात का माहौल होता है। दंगल का आयोजन भी होता है।

आज इन्दौर में ऐसे आयोजन नहीं के बराबर रह गए हैं क्योंकि यह शहर बेतहाशा भागते हुए मेट्रो सिटी बनने की जिद पर अड़ा है। मेरी बेटी इन मेले-ठेले के बारे में तभी जान पाएगी जब मैं उसे तीज-त्यौहारों या मेलों के अवसर पर धार या आस-पास किसी छोटे कस्बे में ले जाऊँ।

जो लोग इस लेख को झेलते हुए यहाँ तक पहुँच गए हैं उनकी वीरता को नमन और धन्यवाद तथा अब अंत में कुछ तंत की बात। तंत शब्द मालवी में सार या तथ्य के समकक्ष होता है। जो लोग '70 के दशक में मध्य प्रदेश में पढ़े हैं उन्होंने कक्षा 3 या 4 में हिन्दी की पुस्तक में 'नागपंचमी' कविता पढ़ी होगी। पाठ भी शायद चौथा रहा होगा। पुस्तक का चौथा पाठ होने से यह होता था कि अगस्त माह में पाठ 4 और नागपंचमी का त्यौहार कुछ दिनों आगे-पीछे आते थे। इसलिए कविता बहुत अच्छी लगती थी। दु:ख की बात यह है कि आज मुझे पूरी कविता याद नहीं है। शुरू की चार लाइनें इस प्रकार हैं -
सूरज के आते ही भोर हुआ
लाठी लेझिम का शोर हुआ
ये नागपंचमी झम्मक झम
ये ढोल-ढमाका ढम्मक ढम।

कविता भूल जाना मतलब समय के दौर का धुंधला जाना है। किसी घिसी रिकॉर्ड, कैसेट या सीडी जैसी अटकती यादें। इससे ज्यादा कुछ लिखना मुनासिब नहीं होगा क्योंकि श्री विष्णु बैरागीजी ने जो लिख दिया है वो शायद ही कोई लिख सके। कविता के खो जाने को जो भाव उन्होंने दिए हैं वो संग्रहणीय हैं। इसे यहाँ ज़रूर देखें। कविता का बड़ा हिस्सा आकाशवाणी वाले यूनुसजी ने यहाँ उपलब्ध कराया है। यदि पाठकों में से किसी को पूरी याद हो या कहीं से मिल जाए तो मुझे या यूनुसजी मेल से भेज दें या स्वयं अपने ब्लॉग पर प्रकाशित करके हमें सूचित कर दें।

8 टिप्पणी:

राजेश उत्‍साही 22 अगस्त 2010 को 10:26 pm बजे  

अतुल जी,आपने खूब याद दिलाया। हम भी यही कविता बालभारती में पढ़कर बडे़ हुए हैं। पर हमें भी उतनी ही याद है जितनी युनूस जी को मिल गई है। अगर मप्र पाठ्यपुस्‍तक निगम में आपका कोई संपर्क हो तो वहां जरूर ही वह बालभारती होगी।

अजित गुप्ता का कोना 23 अगस्त 2010 को 11:48 am बजे  

नागपंचमी की बडी अच्‍छी कथा सुना दी।

SATYA 23 अगस्त 2010 को 2:35 pm बजे  

बहुत अच्छी प्रस्तुति

36solutions 26 अगस्त 2010 को 8:26 am बजे  

अतुल भईया, बहुत दिन बाद आपको पुन: ब्‍लॉग सक्रिय देखकर खुशी हई।
अब आपको सब्‍सक्राईब कर लिया है, मेल से पढ़ता रहुंगा।

नागपंचमी के यादों में अच्‍छा भिगोया है आपने, बालभारती में कविता की पंक्तियां हमें भी उतनी ही याद आ रही है जितनी आपने लिखी है, बालभारती को यहां भी याद किया गया है http://akaltara.blogspot.com/2010/06/blog-post_29.html

ZEAL 22 सितंबर 2010 को 12:21 pm बजे  

बहुत अच्छी प्रस्तुति

Atul Sharma 28 सितंबर 2010 को 10:14 pm बजे  

@ZEAL, उत्साहवर्द्धन के लिए धन्यवाद।

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